किसान ही उबारेंगे देश को मंदी से


महामारी की वजह से महामंदी की आशंका स्वाभाविक है। दुनिया की तकरीबन एक-तिहाई आबादी और आधा हिस्सा महाबंदी को मजबूर है। आम देशों की बात कौन कहे, आर्थिक गतिविधियां ठप होने की वजह से महाशक्ति अमेरिका की भी स्थिति डांवांडोल नजर आ रही है। ऐसे में भारत का चिंतित होना स्वाभाविक है। इसके बावजूद कुछ अर्थशास्त्री देश के आर्थिक भविष्य को लेकर आशान्वित भी हैं। उन्हें उम्मीद है कि अपनी विशाल ग्रामीण आबादी और खेती-बाड़ी के चलते देश इस आफत की स्थिति से भी निकल जाएगा। इस उम्मीद की वजह बना है वह तथ्य, जिसके मुताबिक देश के करीब दो-तिहाई जिले इस महामारी के विषाणु की चपेट में आने से बचे हुए हैं। इसके चलते महाबंदी के दिनों में भले ही इन इलाकों में तेज आर्थिक गतिविधियां नहीं चलीं, लेकिन दूसरे इलाकों की तरह एकदम ठप भी नहीं हुई।
भारत की अर्थव्यवस्था का कोई भी आकलन सिर्फ शहरी जनसंख्या को केंद्र में रखकर किया जाएगा तो सटीक नतीजों तक पहुंचना आसान नहीं होगा। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में 68.84 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है, जबकि शहरों में सिर्फ 31.16 प्रतिशत लोग ही रहते हैं। नीति आयोग के एक आंकड़े के मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था में ग्रामीण क्षेत्रों का योगदान 46 प्रतिशत है। भारतीय अर्थव्यवस्था में ग्रामीण क्षेत्रों की यह प्रत्यक्ष हिस्सेदारी है। इसी आर्थिक आधार पर एचडीएफसी बैंक के प्रबंध निदेशक आदित्य पुरी ने कहा है कि कोरोना से निपटने के बाद भारत की अर्थव्यवस्था को वैसा नुकसान नहीं होने वाला है, जैसी आशंका जताई जा रही है। भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था कोरोना से खास प्रभावित नहीं है, लिहाजा वह मजबूती से चल रही है और आगे भी चलती रहेगी। उनका तर्क है कि चूंकि भारत के छोटे व्यापारियों और छोटी दुकानों को भले ही कोरोना की महाबंदी के दौर में लाभ नहीं हुआ, लेकिन उन पर ज्यादा कर्ज भी नहीं है, लिहाजा उनकी बहुत अधिक देनदारी भी नहीं है। इसलिए जैसे ही दुकानें खुलेंगी, उनका कारोबार चल निकलेगा।
भारत में आर्थिक गतिविधियां भले ही कुछ वक्त के लिए कमजोर रहें, लेकिन भारत के अन्न भंडार इतने भरे हैं कि अगर इनका समुचित तरीके से इंतजाम किया जाए तो भारत में भुखमरी हो ही नहीं सकती। कोरोना के उथल-पुथल भरे दौर में भी अपनी खेती एक बार फिर रिकॉर्ड बनाने जा रही है। स्थिति यह है कि भारत के पहले से खाद्यान्न भंडार भरे हुए हैं। रबी की फसल के रिकॉर्ड उत्पादन को ध्यान में रखते हुए खाद्य निगम के सामने चिंता हो गई है कि वह आगामी उपज को कहां रखे। महाबंदी के चलते केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री अन्नपूर्णा योजना के तहत सभी राज्यों से लोगों को तीन महीने तक मुफ्त राशन मुहैया कराने को कहा है। लेकिन हालात यह है कि सिर्फ तीन केंद्रशासित प्रदेश ही अपने कोटे का पूरा अनाज उठा पाए हैं। बार-बार कहा जा रहा है कि भारत में भुखमरी की स्थिति हो सकती है। लेकिन देश का अन्न भंडार ऐसे ही अकेले वह पूरी दुनिया को छह महीने तक खिला सकता है। एक जनवरी, 2020 के आंकड़े के मुताबिक अनाज पूल में केंद्रीय एजेंसियों के पास 3.19 करोड़ टन और राज्य एजेंसियों के पास 2.45 करोड़ टन अनाज भरा पड़ा है। इनमें 2.37 करोड़ टन जहां चावल है, वहीं 3.27 करोड़ टन गेहूं है। इसके साथ ही इस साल करीब 29.2 करोड़ टन का अनाज पैदा होने का अनुमान है।
याद कीजिए, साल 2008 की वैश्विक मंदी को। संयुक्त राष्ट्रसंघ की एक रिपोर्ट ने भी स्वीकार किया था कि वैश्विक मंदी के दौर से भारत की अर्थव्यवस्था को दुनिया के दूसरे देशों की तरह असर नहीं पड़ा। इसकी वजह उसने भारत के संयुक्त परिवार, ग्रामीण संस्कृति और खेती को बताया था। बेशक भारतीय जीडीपी में इन दिनों खेती की हिस्सेदारी करीब 13 फीसद ही है, लेकिन हथकरघा और खेती आधारित उद्योगों के चलते जीडीपी में भारत की ग्रामीण हिस्सेदारी तीस फीसद तक हो जाती है। वर्ष 2008 में भारतीय अर्थव्यवस्था को उबारने में मनरेगा के जरिए गांवों तक पहुंचे पैसे के साथ ही उत्सवधर्मिता और मेले-ठेले वाली भारतीय संस्कृति ने अर्थव्यवस्था को बचा लिया था। भारत सरकार ने कोरोना राहत के लिए जो 1.70 लाख करोड़ का पैकेज घोषित किया है, उसमें से एक हिस्सा जहां मनरेगा को मिलना है, वहीं किसानों के खाते में किसान सम्मान निधि के तहत दो-दो हजार रुपये दिए जा चुके हैं। इसी तरह हर जनधन खाते में तीन महीने तक पांच-पांच सौ रुपये दिए जा रहे हैं। व्यक्तिगत लिहाज से देखें तो बेशक ये छोटी रकम है, लेकिन सामूहिक तौर पर देखें तो यह विशाल ग्रामीण बाजार को तरल बनाने में ही मदद करेगी।
कोरोना ने मौका दिया है कि स्वावलंबी गांव के गांधी के सपने को पूरा किया जा सके। एक जुलाई, 1947 के यंग इंडिया के अंक में गांधी जी ने लिखा था, 'आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए। हर एक गांव में जम्हूरी सल्तनत या पंचायत का राज होगा। उसके पास पूरी सत्ता और ताकत होगी। इसका यह अर्थ है कि हर एक गांव को अपने पांव पर खड़ा होना होगा, अपनी जरूरतें खुद पूरी कर लेनी होंगी, ताकि वह अपना सारा कारोबार खुद चला सके, यहां तक कि वह सारी दुनिया के खिलाफ अपनी रक्षा खुद कर सके।  लेकिन दुर्भाग्यवश आजाद भारत में शहर केंद्रित नीतियों पर जोर रहा। स्मार्ट-सिटी की अवधारणा पर काम हुआ, लेकिन स्मार्ट-गांव की ओर संजीदगी से ध्यान नहीं दिया गया। इसका असर यह हुआ कि गांव-गांव से पलायन बढ़ा। कोरोना संकट से अपने गांव लौटने के लिए मजदूरों द्वारा हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा की घटनाएं इस विभीषिका का ही प्रतिबिंब हैं।
नीति-नियंताओं को ध्यान रखना होगा कि महाबंदी के दौर में जो लाखों मजदूर अपने गांवों को लौटे हैं, हालात सामान्य होने की स्थिति में भी इतनी जल्दी शहरों की ओर नहीं लौटेंगे। गांव वापसी की स्थिति को नीति-नियंताओं को अवसर की तरह देखना चाहिए। गांव लौटे इस कार्यबल के इस्तेमाल के लिए छोटी प्रोडक्शन इकाइयां, उद्योगों के विकेंद्रीकरण जैसे उपाय अपनाने की दिशा में अगर वे काम करें, तो शहरों पर जहां बोझ कम होगा, वहीं जनसंख्या संतुलन की स्थिति भी बढ़ेगी। इस कार्यबल को उनके गांवों के पास ही काम मिलेगा तो कोई कारण नहीं कि वे शहरों का रुख करें।
यहां पर याद आती है 1930 ही वैश्विक आर्थिक मंदी और उससे उबरने के लिए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट द्वारा अपनाई गई नीतियां। मंदी से उबरने के लिए उन्होंने न्यू डील का ऐलान किया था। न्यू डील में उन्होंने कहा था, 'हम अपनी अर्थव्यवस्था द्वारा कृषि और उद्योगों में संतुलन लाना चाहते हैं। हम मजदूरी करने वालों, रोजगार देने वालों और उपभोक्ताओं के बीच संतुलन कायम करना चाहते हैं। हमारा यह भी उद्देश्य है कि हमारे आंतरिक बाजार समृद्ध और विशाल बने रहें और अन्य देशों के साथ हमारा व्यापार बढ़े।  रूजवेल्ट ने तब बेरोजगारी दूर करने के लिए अमेरिका में पेड़ लगाने को सार्वजनिक कार्य बना दिया था, जिसके लिए लोगों को मजदूरी मिलती थी। अमेरिका की आज की हरियाली उसी योजना की देन है। इससे प्रेरणा ली जा सकती है। लेकिन संतुलन साधने और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को देश की आर्थिक सेहत को बेहतर बनाने के लिए इस दिशा में काम तो किया ही जा सकता है।