किसान, खाद्य सुरक्षा भी हो प्राथमिकता

कोरोना महामारी से पैदा हुई स्थिति के चलते देश और दुनिया के समक्ष अत्यंत विकट हालात बन गए हैं। जाहिर है जनसाधारण के जीवन को सुरक्षा प्रदान करना पहली प्राथमिकता बन गई है। इसके साथ करोड़ों किसान मजदूरों की तो रोजी-रोटी का मसला भी उतना ही संगीन बनकर सामने खड़ा है। लोगों की जान को भूख से भी बचाना है। इसलिए खाद्य सुरक्षा का सवाल भी स्वास्थ्य सेवाओं के साथ ही केंद्रीय प्राथमिकता पर लिये जाने की जरूरत है।
फिलहाल रबी की फसलों में सबसे प्रमुख गेहूं की फसल की कटाई और खरीद के साथ न केवल करोड़ों किसानों के परिवारों का गुजर-बसर जुड़ा हुआ है, बल्कि पूरे देश की खाद्य सुरक्षा से भी इसका गहरा ताल्लुक है। सरसों व चने की खरीद के लिए तो नेफेड और राज्य सरकारों ने खरीद करने के संबंध में दिशा-निर्देश व समयसारणी जारी कर दी है।
जरूरी था कि वर्तमान संकट को देखते हुए सरकारी खरीद के लिए लगाई गई शर्तों को हटाते हुए खरीद व्यवस्था को उदार बनाया जाता। अपेक्षा थी कि मौसम की मार से खराब हुई फसल के दृष्टिगत बोनस के रूप में प्रोत्साहन भी दिया जाता। अफ़सोस है कि ऐसा नहीं हुआ। मिसाल के तौर पर सरसों की खरीद सीमा 25 प्रतिशत रख दी गई है। इसका परिणाम यह होगा कि कुल सरसों उत्पादन का कम से कम तीन-चौथाई हिस्सा किसान समर्थन मूल्य से कहीं कम भाव पर बेचने को मजबूर होंगे। यही स्थिति अन्य शर्तों की भी है। एक आवश्यक शर्त है कि अपनी फसल-अपना ब्योरा के तहत फसल पंजीकृत हो। इस आधार पर भी बहुत सारी सरसों खरीद के दायरे से बाहर हो जाएगी। इस समय पर देश के करोड़ों जरूरतमंद लोगों को खाना पकाने के लिए सरसों के तेल की बड़े पैमाने पर आवश्यकता होनी है जो और भी बढ़नी निश्चित है। इसे देखते हुए सभी शर्तों को हटाते हुए सारी की सारी सरसों की खरीद जरूरी है।
बहरहाल, फसल कटाई की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि लॉकडाउन की वजह से कंबाइन मशीन, कटाई के अन्य उपकरण और इनसे जुड़े व्यक्तियों का आवागमन खोल दिए जाने के बावजूद मौजूदा हालात में यह आसान नहीं होगा। पहले संयुक्त परिवारों द्वारा जो कटाई व अन्य कृषि कार्य करने की रिवायतें थीं वह दशकों पहले बदल चुकी हैं। बड़े पैमाने पर खेत मजदूरी का पेशा करने वाले श्रमिक भी अब गैर कृषि मजदूरी की तरफ शिफ्ट हो चुके हैं। उधर, प्रवासी मजदूर भी नहीं आ पाएंगे। किराये पर मशीनरी मिल पाने से और किराये की दरें अपने आप में एक मामला बनेगा। इसलिये किसानों की चिंताएं और अधिक बढ़ गई हैं।
इन विशेष परिस्थितियों के चलते कटाई की वाजिब दिहाड़ी के अलावा मनरेगा को भी फसल कटाई के काम में अतिरिक्त तौर पर जोड़ा जाना जरूरी हो गया है। इस कदम से खेत मजदूरी छोड़ चुके कामगार आज संकट के समय फसल काटने को प्रोत्साहित हो सकते हैं। इस प्रकार ग्रामीण गरीबों के हाथ में जो पैसा जाएगा, उससे उनकी खरीद शक्ति में इजाफा होगा जो चौपट पड़ी अर्थव्यवस्था की बहाली के लिए भी अनिवार्य है। दूसरा बड़ा सवाल न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गेहूं की सरकारी खरीद का है। लॉकडाउन के मद्देनजर गेहूं की सरकारी खरीद सुनिश्चित करने की दिशा में कोई विशेष योजना अभी तक दिखाई नहीं देती। इस स्तर पर यदि खरीद में कोई कोताही होगी तो तात्कालिक व दूरगामी रूप में इसके बहुत ही बुरे परिणाम होंगे। उल्लेखनीय है कि इस समय देश के भंडारों में निर्धारित और वांछित सीमा से लगभग चार गुना ज्यादा अनाज मौजूद है। इसके रखरखाव पर जो भारी मात्रा में खर्च होता है वह अपनी जगह है।
कोविड-19 और लॉकडाउन से उत्पन्न हुई अभूतपूर्व स्थिति के चलते देश के कोने-कोने में खाद्यान्न की कमी से जूझते करोड़ों परिवारों की पीड़ादायक व्यथा आज किसी से छिपी नहीं है। इस संदर्भ में एक बड़ी चूक तो यही है कि सार्वजनिक वितरण के माध्यम से मुफ्त अनाज वितरण करके भंडारों में जगह बनाने का काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था। अनाज की जगह वास्तव में जनता का पेट होता है और वहीं यह जाना चाहिए। यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकारी खरीद की व्यवस्था और सार्वजनिक वितरण प्रणाली परस्पर जुड़ी हुई योजनाएं हैं। इनमें से एक टूट गई तो दूसरी का भी स्वत: ही टूटना निश्चित है। वैसे तो कृषि क्षेत्र को संकट से उबारने के लिए यह दोनों पहलू निर्णायक हैं ही परंतु अब कोरोना महामारी को देखते हुए तो यह और भी जरूरी हो गया है कि गेहूं, चना, सरसों आदि की खरीद की युद्धस्तर पर व्यवस्था हो। असल में तो इसे कोरोना से पैदा हुई स्थिति से निपटने की रणनीति के अभिन्न हिस्से के रूप में ही लिया जाना जरूरी है। मौसम की मार से खराब हुई फसलों का मुआवजा भी इस समय शीघ्र अति शीघ्र किसानों को अदा किया जाना जरूरी है।